निठारी कांड: न्यायालय ने कहा, वास्तविक अपराधी की पहचान स्थापित ना होना बेहद खेद की बात

नयी दिल्ली. उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि यह ‘बेहद खेद’ की बात है कि लंबी जांच के बावजूद जघन्य निठारी हत्याकांड के असली अपराधी की पहचान स्थापित नहीं की जा सकी. प्रधान न्यायाधीश बी. आर. गवई, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने कहा कि अपराध जघन्य थे और परिवारों की पीड़ा अथाह थी.

निठारी हत्याकांड में सुरेंद्र कोली को बरी करते हुए पीठ ने कहा, ”यह गहरे खेद की बात है कि लंबी जांच के बावजूद, असली अपराधी की पहचान कानूनी मानकों के अनुरूप नहीं हो पाई है.” नोएडा के निठारी में 29 दिसंबर, 2006 को व्यवसायी मोनिंदर सिंह पंढेर के घर के पीछे एक नाले से आठ बच्चों के कंकाल मिलने के साथ ही सनसनीखेज निठारी हत्याकांड का खुलासा हुआ था. उस समय कोली पंढेर के घर में घरेलू सहायक था.

मामले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि खुदाई शुरू होने से पहले घटनास्थल की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की गई थी, कथित खुलासे को उसी समय दर्ज नहीं किया गया था, रिमांड दस्तावेजों में विरोधाभासी विवरण थे और कोली को अदालत द्वारा निर्देशित समय पर चिकित्सा परीक्षण के बिना लंबे समय तक पुलिस हिरासत में रखा गया था. पीठ ने निठारी में 15 वर्षीय लड़की के कथित बलात्कार और हत्या से संबंधित मामले में कोली की दोषसिद्धि को चुनौती देने वाली सुधारात्मक याचिका को स्वीकार कर लिया.

पीठ ने कहा, ”हम निर्णय के अंतिम होने के महत्व से अवगत हैं. हम यह भी जानते हैं कि सुधारात्मक राहत एक असाधारण उपाय है और इसे केवल सीमित परिस्थितियों में ही दिया जाता है. वर्तमान मामला उस कड़े मानदंड को पूरा करता है.” पीठ ने कहा कि दोषसिद्धि को आधार प्रदान करने वाली स्वीकारोक्ति, निठारी हत्याकांड से जुड़े अन्य मामलों में शीर्ष अदालत द्वारा पहले ही स्वीकार किए जा चुके आधारों पर कानूनी रूप से दूषित है. पीठ ने कहा कि कथित खोजें स्वीकार्यता की वैधानिक पूर्व शर्तों को पूरा नहीं करती हैं और फॉरेंसिक तथा जांच रिकॉर्ड गुम कड़ियों को पूरा नहीं करती हैं.

पीठ ने जोर देकर कहा कि संविधान का अनुच्छेद 21 एक निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित प्रक्रिया पर जोर देता है. पीठ ने कहा, ”यह संविधान के अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन करता है क्योंकि समान मामलों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए. एक जैसी परिस्थितियों में मनमाना अंतर न्याय के समक्ष समानता के सिद्धांत के विपरीत है.” पीठ ने कहा कि सुधारात्मक क्षेत्राधिकार ऐसी ही विसंगतियों को मिसाल बनने से रोकने के लिए मौजूद है. पीठ ने कहा कि मामले में किए गए डीएनए परीक्षण से कुछ अवशेषों का संबंध लापता व्यक्तियों के परिवारों से जुड़ा, लेकिन इससे केवल पहचान में ही मदद मिली.

रिपोर्ट में कहा गया है,”चाकू और कुल्हाड़ी पेश किए गए, लेकिन उन पर खून, ऊतक या बाल का कोई ऐसा सबूत नहीं मिला, जो कथित अपराधों में उनके इस्तेमाल को साबित करे. ऐसी कोई विश्वसनीय साक्ष्य-श्रृंखला या विशेषज्ञ गवाही प्रस्तुत नहीं की गई, जिससे यह साबित हो सके कि कोई घरेलू सहायक, जिसके पास कोई चिकित्सकीय प्रशिक्षण नहीं है, उस प्रकार के सटीक अंग-विच्छेदन को अंजाम दे सकता था जैसा कि र्विणत किया गया है.” पीठ ने कहा कि ये कमियां अन्य 12 मामलों में अभियुक्तों को बरी करने के केंद्र में थीं और इस मामले में भी ये कमियां समान रूप से मौजूद थीं.

पीठ ने कहा कि साक्ष्यों से यह भी पता चलता है कि पुलिस और जनता को पहले से ही पता था कि जमीन के खुले और संकरे हिस्से में हड्डियां और सामान पड़ा है और कोली के वहां पहुंचने से पहले ही खुदाई शुरू हो गई थी. पीठ ने कहा, ”ये तत्व अभियुक्त द्वारा की गई खोज के आवश्यक तत्व को नकारते हैं और इस प्रक्रिया को पहले से ज्ञात स्थान से जब्ती तक सीमित कर देती हैं.” पीठ ने कहा कि जब आधार एक ही हो, तो कानूनी निष्कर्ष हर मामले में नहीं बदल सकता. पीठ ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत कोली का बयान लगभग 60 दिनों की निर्बाध पुलिस हिरासत के बाद, बिना किसी सार्थक कानूनी सहायता के दर्ज किया गया था.

पीठ ने कहा, ”बयान दर्ज करने वाले मजिस्ट्रेट ने वह स्पष्ट और बिना शर्त संतोष के साथ दर्ज नहीं किया, जिसकी कानून में अपेक्षा की गई है. जांच अधिकारी की रिकॉर्डिंग प्रक्रिया के दौरान नजदीकी जैसे कि उसकी शुरुआत में मौजूदगी और बाद में आसानी से पहुंच ने बयान देने के स्वैच्छिकता के माहौल पर असर डाला.” पीठ ने कहा कि बयान के पाठ में बार-बार पूर्व-निर्देशन और पूर्व दबाव का जिक्र किया गया है.

पीठ ने कहा, ”हमें ऐसा कोई सैद्धांतिक आधार नहीं मिला जिसके आधार पर इस मामले में उसी बयान को स्वैच्छिक और विश्वसनीय माना जा सके, जिसे अन्य सभी मामलों में न्यायिक रूप से अस्वीकृत किया जा चुका है.” इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अक्टूबर 2023 में कोली और सह-अभियुक्त पंढेर को निठारी से जुड़े कई अन्य मामलों में बरी कर दिया था और 2017 में निचली अदालत द्वारा सुनाई गई मौत की सजा को पलट दिया था.

अदालत ने कोली को 12 मामलों और पंढेर को दो मामलों में बरी कर दिया था. केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) और पीड़ित परिवारों ने बरी किए जाने के इन फैसलों को बाद में उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी लेकिन शीर्ष अदालत ने इस साल 30 जुलाई को सभी 14 अपीलों को खारिज कर दिया. उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि जब उसके अंतिम आदेश एक जैसे रिकॉर्ड पर ‘असंगत आवाजों’ के साथ आते हैं, तो फैसले की अखंडता खतरे में पड़ जाती है और जनता का विश्वास डगमगा जाता है.

प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने सनसनीखेज निठारी हत्याकांड से जुड़े एक मामले में दोषसिद्धि को चुनौती देने वाली सुरेंद्र कोली की सुधारात्मक याचिका को स्वीकार कर लिया. सुधारात्मक याचिका, शीर्ष अदालत में पुर्निवचार याचिका सहित अन्य सभी विकल्पों का उपयोग करने के बाद किसी पक्ष के लिए उपलब्ध अंतिम कानूनी सहारा होती है.

पीठ ने कहा, ”यह सुधारात्मक याचिका हमारे सुधारात्मक अधिकार क्षेत्र के प्रयोग के लिए एक असाधारण मामला प्रस्तुत करती है. याचिकाकर्ता (कोली) ने दर्शाया है कि न्याय की स्पष्ट विफलता बनी रहती है और एक ही साक्ष्य के आधार पर दो तरह के परिणाम कानूनी रूप से एक साथ नहीं रह सकते.” पीठ ने कहा कि उच्चतम न्यायालय का सुधारात्मक अधिकार क्षेत्र प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने और न्याय की घोर विफलता को ठीक करने के लिए मौजूद है.

शीर्ष अदालत ने रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा मामले का हवाला देते हुए कहा कि उसकी संविधान पीठ ने माना है कि यह शक्ति उच्चतम न्यायालय के अंर्तिनहित अधिकार से आती है, ताकि वह पूर्ण न्याय करे और अपने निर्णयों की सत्यनिष्ठा की रक्षा करे.
इसने जोर देकर कहा कि रूपा अशोक हुर्रा मामले में लिया गया फैसला यह स्पष्ट करता है कि सुधारात्मक याचिका (क्यूरेटिव पिटीशन) दूसरी समीक्षा याचिका नहीं है. पीठ ने कहा, ”उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अंतिम होने का नियम है और हस्तक्षेप केवल बहुत ही ठोस कारणों से ही किया जा सकता है जब न्यायिक प्रक्रिया की वैधता पर आघात पहुंचाते हों.”

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