समान सिविल संहिता की आवश्यकता क्यों? डॉक्टर ममता साहू अधिवक्ता
रायपुर। समान नागरिक संहिता शब्दावली भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में प्रयुक्त हुआ है ,जिसमें नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता लागू करने की बात कही गई है। मूल रूप में यह प्रावधान करता है कि राज्य भारत के समस्त राज्य क्षेत्रों में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। सीधे शब्दों में अलग-अलग पंथ के लिए अलग अलग से सिविल कानून ना होना ही समान नागरिक संहिता है ।चुंकि यह प्रावधान संविधान के भाग 4 अर्थात राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के अंतर्गत आता है, अतः यह राज्य के लिए निर्देश मात्र है ,बाध्यकारी नहीं और यही कारण है कि उच्चतम न्यायालय के समक्ष कई प्रकरण निर्णित किए जाने के बाद भी सरकार नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने से बचती रही है।
42 वें संविधान संशोधन में प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द जोड़ा गया सभी के साथ समान व्यवहार कानून ना करना विधि के शासन अनुच्छेद 14 और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है।
अमेरिका ,आयरलैंड, पाकिस्तान, तुर्की ,बांग्लादेश ,मलेशिया, इंडोनेशिया, सूडान इजिप्ट कई ऐसे देश हैं ,जहां सिविल संहिता कानून लागू है ।भारत में *गोवा* एकमात्र राज्य है जहां समान सिविल संहिता कानून लागू है।
जान वल्लभ मत्तपम बनाम भारत संघ (2003) के प्रकरण में पुनः समान नागरिक संहिता पर राष्ट्रीय बहस के लिए मंच तैयार किया गया, ऐसा नहीं कि यह पहली घटना है इसके पूर्व शाह बानो बेगम (1985) और सरला मुद्गल (1995 )के प्रकरण के निर्णय भी इस संवैधानिक सभा वाली पर व्यापक चर्चा का अवसर प्रदान कर चुका है ,किंतु इस संदर्भ में अभी तक कुछ प्राप्त नहीं हो सका।
सन 1985 में मोहम्मद अहमद खां बनाम शाह बानो के बहुचर्चित मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिक कानून की अपरिहार्यता को रेखांकित किया ,तथा राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में इसे जरूरी बताया ।इस प्रकरण में यह निर्णय लिया गया कि यदि कोई मुस्लिम महिला तलाक के बाद निर्वाह करने में असमर्थ है तो वह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन अपने पति के विरुद्ध भरण पोषण के लिए दावा कर सकती है।
कट्टरपंथी मुस्लिमों ने इसका बहुत विरोध किया, जिसके आगे नतमस्तक होकर सिर्फ वोट बैंक की खातिर तत्कालीन श्री राजीव गांधी की सरकार ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को प्रभावित करने के लिए आनन-फानन में संसदीय कानून बनाया। इस कानून का काफी विरोध हुआ, यहां तक कि तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इस कानून के विरोध में इस्तीफा तक दे दिया, किंतु सरकार अपने फैसले पर अडिग रही।
*श्री आरिफ मोहम्मद खान* ने कहा कि पूरी दुनिया में भारतीय मुस्लिम महिलाएं ऐसी होगी जिन्हें भत्ते से वंचित किया जा रहा है ,मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) कानून 1986 भारत के न्यायिक इतिहास में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन के रूप में दर्ज हो गया।
सरला मुद्गल( 1995 )के प्रकरण में न्यायालय ने धर्म परिवर्तन की आड़ में द्वितीय विवाह को अवैध माना। हिंदू विधि में संशोधन इस कारण संभव हो पाया कि यह बहुसंख्यक वर्ग से है और विधायिका में इनका बहुमत था ।मुस्लिम विधि में परिवर्तन इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि इनका विरोध सत्ता की राजनीति में असर दिखा सकता है, मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व देने वाली सर्वमान्य संस्था का भी अभाव है, जिसमें वास्तव में बहुसंख्यक मुस्लिमों का आदर व समर्थन प्राप्त हो।
मुस्लिम विधि में महिलाओं की स्थिति उनके हितों के प्रतिकूल है ।शरीयत अधिनियम 1937 ,मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939 ,मुस्लिम महिला अधिनियम 1986 में संहिताबद्ध है। 1939 का अधिनियम मुस्लिम स्त्रियों को तलाक की इजाजत अत्यंत दुरूह परिस्थितियों में देता है जैसे पति की क्रूरता, नपुंसकता जिसे सिद्ध करना आसान नहीं है। वहीं पुरुष को तीन बार तलाक बोलकर *तलाक ए बिद्धत* का अधिकार मिला हुआ था, किंतु अब मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम 2018 के लागू होने के उपरांत ट्रिपल तलाक को दंडनीय बनाया गया।
सायरा बानो प्रकरण (2016) में ट्रिपल तलाक की वैधता को चुनौती दी गई और कहा कि यह नियम अतार्किक और विभेद कारी है जो अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता का उल्लंघन करता है, और महिलाओं के प्रति अन्याय है। रहा सवाल अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता का तो यह मौलिक अधिकार तब तक सही हैं जब तक कि अन्य मौलिक अधिकारों का हनन ना हो।
उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि अधिनियम की धारा 3 ट्रिपल तलाक असंवैधानिक है ,यह मनमाना पन है जो अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है ,और इस पर शीघ्र ही 6 माह के भीतर संसद कानून बनाएं।
सायरा बानो को बहुत-बहुत साधुवाद जिन्होंने महिला अधिकारों की रक्षा की, साथ ही समान सिविल संहिता लागू करने में न्यायालय का अप्रतिम योगदान रहा है ,किंतु उनकी भी अपनी एक सीमा है क्योंकि न्यायालय कानून नहीं बना सकती।
ईसाइयों पर लागू कानून इस दृष्टिकोण से कम विभेदकारी है ।इंडियन क्रिश्चियन अधिनियम 1872 तथा विदेशी विवाह अधिनियम 1969 ,विधि को संहिताकृत करने वाले अग्रणी अधिनियम रहे हैं, लेकिन यह भी अपेक्षित आदर्शों को प्राप्त नहीं है। पूर्व में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 (1) विभेद कारी होने के कारण उच्चतम न्यायालय द्वारा अवैध/ असवैधानिक घोषित किया गया। जान वल्लभ मत्तपम बनाम भारत संघ (2003) में उच्चतम न्यायालय ने धारा 118 (1) के बारे में टिप्पणी किया कि उक्त धारा की व्यवस्था अतार्किक ,अनुचित और अनुच्छेद 14 के अंतर्गत समानता विरोधी है।
न्यायालय का निष्कर्ष था विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच विवाह, उत्तराधिकार और संपत्ति के मामलों में भेदभाव इसलिए होता है क्योंकि स्वतंत्रता प्राप्ति के55 बरसों के बाद भी संविधान के अनुच्छेद 44 में वर्णित समान नागरिक संहिता लागू नहीं हो पाई है, अतः इसे लागू करने के लिए केंद्र सरकार को विधि बनाने चाहिए क्योंकि इसमें राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलेगा।
समान सिविल संहिता लागू होने से लाभ यह होगा कि वर्षों से न्यायालय में जो हजारों प्रकरण लंबित हैं, उनका त्वरित निराकरण होगा ।
दूसरा देश में एकता कायम होगी और आपसी वैमनस्य कम होगा
तीसरा राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर पाएंगे वोटों का ध्रुवीकरण नहीं होगा।
इस तरह से इस कानून के लागू होने से लाभ ही होगा। स्त्रियों को शिक्षा उनको समान अवसर तथा पुरुषों के समकक्षता से धर्म की हानि नहीं बल्कि उन्नयन होगा ।जो पंथ दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ पाता उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।वर्तमान में अधिक समय तक स्त्रियों को नीचे पायदान पर नहीं रखा जा सकता यदि उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं मिला तो विकृतियां जन्म लेंगी ।पहले संयुक्त परिवार विघटित हुए अब एकल परिवार भी बिखर रहा है।
ऐसे में अराजकता बढ़ेगी। वर्तमान में स्त्रियां सती नहीं होती बल्कि अपने पति पिता का अंतिम संस्कार करने शमशान तक जा रही हैं ।न्यायालय उनसे भी उनके पिता, बच्चों तथा पति को गुजारा भत्ता दिलवा रहा है ।ऐसे में यदि उन्हें बराबरी का दर्जा ना दिया गया तो महिला उत्थान और सशक्तिकरण की बातें व्यर्थ होगी।
डॉक्टर ममता साहू अधिवक्ता
रायपुर
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