अदालत ने उपराज्यपाल वी के सक्सेना की मानहानि के मामले में मेधा पाटकर को दोषी ठहराया
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नयी दिल्ली. दिल्ली की एक अदालत ने शिकायत दर्ज होने के करीब 23 वर्ष बाद ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ (एनबीए) की नेता एवं सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर को उनके खिलाफ दिल्ली के वर्तमान उपराज्यपाल वी के सक्सेना की ओर से दायर मानहानि मामले में शुक्रवार को दोषी ठहराया. अदालत ने कहा कि प्रतिष्ठा ”सबसे मूल्यवान संपत्तियों” में से एक है और समाज में व्यक्ति की स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है.
मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट राघव शर्मा ने पाटकर के बयानों को “मानहानि के समान” और “नकारात्मक धारणा को उकसाने के लिए तैयार किया गया” करार देते हुए सामाजिक कार्यकर्ता को भारतीय दंड संहिता के तहत आपराधिक मानहानि के अपराध का दोषी ठहराया, जिसके लिए अधिकतम दो साल तक साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.
सक्सेना ने यह मामला नवंबर 2000 में उस वक्त दायर किया था, जब वह ‘नेशनल काउंसिल ऑफ सिविल लिबर्टीज’ के अध्यक्ष थे. सक्सेना ने उक्त मामला पाटकर द्वारा उनके खिलाफ जारी की गई एक “अपमानजनक” प्रेस विज्ञप्ति के लिए दायर किया था.
मजिस्ट्रेट ने 55-पृष्ठ के अपने फैसले में कहा, “प्रतिष्ठा एक व्यक्ति के पास मौजूद सबसे मूल्यवान संपत्तियों में से एक होती है, क्योंकि यह व्यक्तिगत और पेशेवर, दोनों संबंधों को प्रभावित करती है और समाज में किसी व्यक्ति की स्थिति को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकती है.”
उन्होंने कहा कि सक्सेना को “देशभक्त नहीं, बल्कि कायर कहने वाला और हवाला लेनदेन में उनकी संलिप्तता का आरोप लगाने वाला पाटकर का बयान न केवल अपने आप में मानहानि के समान है, बल्कि इसे नकारात्मक धारणा को उकसाने के लिए गढ़ा गया था.” मजिस्ट्रेट ने कहा कि साथ ही “यह आरोप कि शिकायतकर्ता गुजरात के लोगों और उनके संसाधनों को विदेशी हितों के लिए गिरवी रख रहा है, उनकी ईमानदारी और सार्वजनिक सेवा पर सीधा हमला है.” अदालत ने कहा कि सक्सेना की गवाही, जिसका अदालत के दो गवाहों ने समर्थन किया, यह दिखाती है कि पाटकर ने उन्हें (सक्सेना) ऐसी गतिविधियों से गलत तरीके से जोड़ा, जो उनके सार्वजनिक रुख के विपरीत है. अदालत ने कहा कि पाटकर इन दावों का खंडन करने या यह दिखाने के लिए कोई सबूत पेश करने में विफल रहीं कि उनका उनके बयानों से होने वाले नुकसान का इरादा नहीं था या उन्हें इसका अंदाजा नहीं था.
अदालत ने कहा, “शिकायतकर्ता के परिचितों के बीच उत्पन्न सवाल और संदेह, साथ ही गवाहों द्वारा उजागर की गई धारणा में बदलाव, उनकी (सक्सेना की) प्रतिष्ठा को हुए हानि को रेखांकित करता है.” उसने कहा कि पाटकर के कृत्य ”जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण थे, जिनका उद्देश्य शिकायतकर्ता की अच्छी छवि को धूमिल करना था और वास्तव में इसने जनता की नज.र में उनकी प्रतिष्ठा और साख को काफ.ी नुकसान पहुंचाया.” अदालत ने अपने समक्ष प्रस्तुत साक्ष्यों पर गौर करते हुए कहा कि यह उचित संदेह से परे साबित हो चुका है कि पाटकर ने यह जानते हुए भी बयान प्रकाशित किया था कि इससे सक्सेना की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचेगा.
अदालत ने कहा, ”इसलिए, आरोपी ने भारतीय दंड संहिता की धारा 500 (मानहानि) के तहत दंडनीय अपराध किया है. उसे इसके लिए दोषी ठहराया जाता है.” सजा पर दलीलें 30 मई को सुनी जाएगी. अदालत ने अपने आदेश में, तीन सवालों पर विचार किया- क्या यह साबित होता है कि प्रेस नोट पाटकर द्वारा जारी किया गया था, क्या प्रेस नोट में सक्सेना के खिलाफ. कुछ आरोप लगाए गए थे और क्या आरोपी ने आरोपों को प्रकाशित करके उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने का इरादा किया था.
उसने कहा कि बयान जारी करने के खिलाफ पाटकर के “बेबुनियाद दावों और बहानों” पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं है और “आरोपों की गंभीरता और सटीकता” से यह उजागर होता है कि उन्होंने जानबूझकर ऐस कदम उठाया था और उनका “प्राथमिक उद्देश्य” सार्वजनिक रूप से सक्सेना की विश्वसनीयता और ईमानदारी को कमतर करना था.
पाटकर और सक्सेना के बीच वर्ष 2000 से ही एक कानूनी लड़ाई जारी है, जब पाटकर ने अपने और नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) के खिलाफ विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए सक्सेना के विरुद्ध एक वाद दायर किया था. सक्सेना ने एक टीवी चैनल पर उनके (सक्सेना) खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने और प्रेस को मानहानिकारक बयान जारी करने के लिए भी पाटकर के खिलाफ दो मामले दायर किए थे.
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